एकमेवाद्वितीय असाधारण महापुरुष प्रज्ञाचक्षु ज्ञानेशकन्या सद्गुरु श्रीगुलाबरावजी महाराजजी का आज १०६ वां पुण्यस्मरण :-
श्री गुलाबरावजी महाराज, जो पंचलतिका गोपी अवतार हैं ,गत पांच सौ वर्षों में अभितक हो चुकें महात्माओमें श्री भगवानजी के सबसे अलौकीक विभुती हैं।केवल ३४ वर्ष का एक छोटा जीवन/अवतार कालावधी, इतने कम कार्यकाल में श्री महाराज जी ने १३० ग्रंथो की रचना की हैं।अपने ग्रंथोद्वारा महाराज जी ने विश्व के संपूर्ण नास्तिकवादका सप्रमाण खंडन किया हैं।महाराज जी ने संगीत, आयुर्वेद, योग, भक्ती ,ज्ञान, मनोविज्ञान ,व्याकरण, भाषा, काव्यशास्र, वेदांत एैसे विविध विषयोके संस्कृत,हिंदी,मराठी,वऱ्हाडी और व्रज भाषाओ में कुल १३० ग्रंथ तथा छह हजार पृष्ठो का अलौकिक और अतिदिव्य वाङ्मय का निर्माण किया हैं।
श्रीमहाराज जी का जन्म महाराष्ट्र राज्य के अमरावती जिलेमें स्थित लोणी टाकळी इस ग्राम में हूवा जो उनका ननिहाल था।श्री महाराज जी के पिताश्री का नाम गोंदुजी और माताजी का नाम अलोकाबाई था ।जब श्री महाराजजी ८-९ माह के थे तब उन्हे दृष्टी विकार हो गया था।तब महाराज जी को इस विकाराके लिये योग्य चिकित्सा नही मिली।अपितु एक देहाती वैद्य ने श्री महाराज जी के नयनो में ईमली के पत्तो का रस उपचारार्थ डाल दिया।पर इस कारणवश श्रीमहाराज जी की दृष्टी अधू हो गई और वो जन्मांध हो गये।पर यह अंधत्व सिर्फ बाह्य था।फिरभी श्रीमहाराज जी अपने अंतरचक्षु से,प्रज्ञाचक्षु से सारे विश्वरचना का अवलोकन किया करते थे।बाल्यावस्था मे ही श्री महाराज जी को मातृवियोग हुवा था।तद उपरांत श्री महाराज जी का पालन पोषण उनकी नानीजी सौ.सावित्रीनानी इन्होने किया था। देखा जाए तो महाराज जी ने लौकीक शिक्षा प्राप्त नही की थी और इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण घरकी प्रतिकुल परिस्थीती थी अतः महाराज जी का अलौकीक कार्य देखते श्री महाराज जी का अवतारीत्व सिद्ध होता है।किसी भी प्रकार की लौकिक शिक्षा प्राप्त न करते हुवे भी श्रीमहाराज अस्खलित संस्कृत में वार्ता किया करते थे।श्रीमहाराज जी का संस्कृत सुनकर संस्कृत ज्ञानी पंडित भी अचंबित हो जाते थे।श्रीमहाराज जी ने अद्वैत के आधार पर पुन्हः भक्तीशास्रका स्वतंत्र सिद्धांत स्थापन किया और इस सिद्धांत मे उन्होने माधुर्यभक्तीका श्रेष्ठत्व भी सिद्ध किया।श्री महाराज जी की प्रमुख शिष्या उनकी अर्धांगीनी देवी मनिकर्णीका इनका भी अधिकार अतिउच्च था।उन्हे श्री महाराज जी ने नित्य उपदेश देकर उनका मार्गदर्शन किया।मनिकर्णीका देवा जी को सब लोक “मायबाई” कहके संबोधित करते थे।इन्होने श्री महाराज जी की अंतःकरण पूर्वक अपार सेवा की।अपने पति श्रीमहाराज जी की गुरुभावसे सेवा,उन्हे अपने हातोसे खाना खिलाना,श्री महाराज जी के साथ गित,अभंग,ओवी का गायन करना,उचे और मधुर आवाजमें श्रीज्ञानेश्वरी का पठण करना,श्री महाराज जी को क्रोध आने परभी वह महाराज जी के वृत्तीनुरुप वर्तन करती थी,महाराज जी के सभी कामो मे वो बोहोत परिश्रम करती थी,देर रात सब लोग भजन करके सो जाने पर वह सबके लिये कंबल की व्यवस्था किया करती थी,सब भक्त लोगो का अच्छी तरह से ख्याल रखने का पुण्यकारक काम माता अविरत किया करती थी।अल्पकालमे ही पुण्यश्लोक मनिकर्णीका देवी का परलोक गमन हो गया । उनका अंतिम विधी श्री महाराज जी ने स्वयं अपने हाथो से किया। तब महाराज जी ने उन्हे ज्ञानयोग्य शरीर प्राप्त होणे के लिये स्वतंत्र संकल्प किया।
श्रीमहाराज जी के जिवन काल में सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है ,करुणाब्रह्म महाविष्णु संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज जी का प्रत्यक्ष अनुग्रह प्राप्ती।श्री ज्ञानेश्वर महाराज जी ने श्री महाराज जी को अपने समक्ष बिठाकर अपने स्वनामका अनुग्रह कृपापूर्वक दिया था।उसके उपरांत श्री महाराज जी का ज्ञानेश्वर महाराज जी ने अपने कन्या रुप में स्विकार किया और तत्पश्चात श्री गुलाबराव महाराज जी “ज्ञानेशकन्या” हो गये।गुलाबराव महाराज जी भी सद्गरु श्री ज्ञानेश्वर महाराज जी को “तात” कहकर संबोधित करणे लगे।इस प्रसंग का श्री गुलाबराव महाराज जी ने अपने अभंग मे अतिव सुंदर रुप मे वर्णन किया है।वह अभंग रचना है -
"माझा सदगुरु करुणाघन | आळंदीपती कल्याणनिधान | जेणे आपुलिया नामाचा मंत्र देऊन | कृतार्थ केले मजलागी ||
कैवल्य कनाकाचिया दाना | जो न कडसी थोरसाना | द्रष्टयाचे दर्शना | पाठाऊ जो ||
या साच करावयास निजवचना | न देखोनी मम पात्रपणा | अंकी घेवोनि खुणा | सांगितल्या स्वनामाच्या ||"
श्रीज्ञानेश्वर महाराज जी के प्रत्यक्ष कृपा अनुग्रह पश्चात श्रीमहाराज जी का कार्यका व्यापक विस्तार होने की शुरवात हो गई।श्री महाराज जी का जिवनपुष्प लौकिक अर्थसे पूर्णरुपसे विकसीत अवस्था में देखा जा सकता है तो वो श्रीकृष्ण पत्नी इस नातेसे किये गए मधुरा भक्ती के रुप में।श्रीज्ञानेश्वर महाराज जी का अनुग्रह होणे के बाद श्री महाराज जी अपनेको “ज्ञानेशकन्या” इस नाम से संबोधित करणे लगे।उनके तात जी अर्थात ज्ञानेश्वर महाराज जी ने उनका विवाह भगवान श्रीकृष्णचंद्र प्रभु जी से संपन्न किया।उसके बाद श्रीमहाराज जी की प्रेमभक्ती पूर्ण रुप से प्रवाहीत होणे लगी।वासुदेव पत्नी रुपमे उन्होने मधुरा भक्तीका प्रारंभ किया और वो निरंतर कृष्ण भक्ती में लिन हो गए।अतः समाज में मधुराभक्ती के बारे मे अनेक प्रकार की गलत धारण थी. अनेक विद्वानोंने मधुराभक्ती के बारे में समाज की दिशाभूल की थी।पर कुछ समय बाद श्री महाराज जी ने ब्रम्हर्षी भगवान श्री नारद मुनी जी के आदेश से मधुराद्वैतसांप्रदाय की स्थापना की। इस परमश्रेष्ठ मधुरा भक्तीका प्रतिपादन और श्रेष्ठत्व सिद्ध करणे के लिये अलौकीक अमररुप वाङमय का निर्माण किया।इस मधुराभक्तीका सुंदर मंडण उन्होने अपने विविध ग्रंथो में किया हैं। १९०३ साल में श्री महाराज जी ने कात्यायणी व्रत का प्रारंभ किया। यही व्रत
मार्गशीर्ष मास में गोपीकाओने कृष्ण प्राप्ती के लिये किया था।इस व्रत के प्रारंभ के बाद श्री महाराज जी के आनंद सागर को परिसीमा नहीं रही.महाराज जी द्वारा विविध प्रकार के शास्त्र के रहस्योका प्राकट्य होने लगा।अपने प्रवचन द्वारा यह गुह्य ज्ञान महाराज जी प्रगट करने लगे।श्रीमहाराज जी के माधुर्य भक्ती करनेका और माधुर्य संप्रदाय स्थापन करणे का यह एक महत्वपूर्ण कारण था।श्री महाराज जी कहते थे , "मैं पंचलतिका नाम की एक गोपीका हूं." और खुद गोपी अवतार होणे के कारण वह स्त्री सौभाग्य अलंकार को धारण करणे लगे।आगे चलकर यह कृष्ण पत्नी वेश परिधान करणा महाराज जी का नित्य आचार हो गया था।मधुराद्वैत संप्रदाय की रचना शास्त्राधार पर स्थापित करणे का अलौकिक कार्य करणे के लिये श्री महाराज जी का अवतार हुवा था।मधुराद्वैत संप्रदाय की स्थापना तथा उस मत प्रवाह को जो प्रतिकूल और अवैदिक सिद्धांतो पर आधारीत थे उनका खंडन करना यह महाराज जी का मुख्य अवतार कार्य था।एक बार प्रवचन करते समय "बहुनि मे व्यतितानि जन्मानि" यह भगवद वचन श्रीमहाराज जी के बारेमे सत्य होणे का प्रसंग प्रस्तुत हूवा।अमरावती के कुछ भक्तगणोने श्रीमहाराज जी को ज्ञानेश्वरी के प्रथम ओवीपर प्रवचन करणे की प्रार्थना की,तब महाराज जी ने प्रवचन करना शुरु किया। "ॐ नमो जी आद्या" यह ओवी पर प्रवचन होणे पर "आता वाच्यवाचका । अभेदू लाहे नेटका । नामरुपे टका । तूते झाला।।" यह नुतन ओवी उसके बाद श्रीमहाराज जी कहने लगे।पण आश्चर्य की बात यह थी की यह ओवी ज्ञानेश्वरी के किसी भी प्रत मे उपलब्ध नहीं थी।यह ओवी कहते ही सब लोग आश्चर्यचकित हो गये।सब लोक आश्चर्य व्यक्त करणे लगे.यह बात श्री महाराज जी को तत्क्षण ध्यान आ गई।श्री महाराज जी कहने लगे की , "भावार्थ दिपिका याने ज्ञानेश्वरी यह ग्रंथ कुल १०,००० ओवीं की रचना का है.।परंतु कुछ कारणवश हेतु पूर्वक अभी ९००० ओवी की रचना ही श्रीज्ञानेश्वर महाराज जी ने हम सब के लिये प्रकट की है." बाकी १००० ओवी श्रीमहाराज जी को मुखोद्गत थी।
श्रीमहाराज जी ने अपने अवतार कार्य में शांकर अद्वैत व भक्ती का संपूर्ण रुप से समन्वय किया था और श्रीमहाराज जी ने भक्ती के नुतन १६ प्रकारोकी रचना की थी।ज्ञान,उपासना और भक्ती इनका भेद विवेचन उन्होने किया है।श्रीभगवद् विग्रहका अर्थात श्रीभगवानजीके सगुण विग्रह का अनध्यस्तविवर्तत्व यह नुतन परिभाषा निर्माण करके विश्व के सामने प्रकट की। नाममहात्म्य अर्थवादी है इस आरोप का सप्रमान खंडन किया।इस दौरान समन्वय के ९ प्रकारोका विवेचन श्री महाराज जी ने किया।उत्क्रांतिवाद,अनुवाद, अज्ञेयवाद, संशयवाद जैसे पाश्र्चात्य तत्वज्ञानोका भारतीय सिद्धांतोसे तुलना और उनका मुल्यमापन किया।नीतिशास्त्रोके युरोपियन मतोंका खंडन किया। पाश्र्चात्य व भारतीय मानसशास्त्रकी तुलना श्रीमहाराज जी ने की।अॅलोपॅथी व आयुर्वेद इनकी तुलना करके श्रीमहाराज जी ने स्वयंके मानसायुर्वेद शास्त्र की निर्मिती की।इस्लाम,ईसाई, पारशी,बौद्ध,जैन यह सब वैदिक धर्मकी शाखाए है यह सिद्धांत का प्रमाण पुरस्सर शास्त्रीय विवेचन श्रीमहाराज जी ने किया।लो.टिळक,विवेकानंद,रामतिर्थ जैसे कुछ विचारवंतो के विचारो की परखड चिकित्सा श्री महाराज जी ने की।श्री महाराज जी ने समाजस्थीत ढोंगी साधू और दिखावे बाज पंडितो का जबरदस्त रुप से समाचार लिया।श्री महाराज जी ने इस के विरोध में अपने ग्रंथ और पत्र व्यवहारो में अच्छा समाचार लिया है।धर्मसंकर, धर्मसुधारणा और धर्मसमन्वय इन्हीके भेदोंका विवेचन श्री महाराज जी ने किया है।वेदोंपर आणि पुराणोपर समन्वयात्मक सूत्रग्रंथोकी रचना श्रीमहाराज जी ने की है।आर्य यह वंश नही,आर्य बाहेर से आए नहीं है ,शुद्र वर्ण यह आर्य का ही भाग है इस सिद्धांत का प्रतिपादन उन्होंने किया है ।तीन हजार साल पहिले आर्य संस्कृती विश्वव्यापक थी ,और उन्होंने उस ऐतिहासिक सिद्धांन्त की पुन:स्थापना की।महाराज जी ने पाश्चिमात्य डार्विन, स्पेन्सर ,अॅनीबेझंट इन जैसे अनेक उत्क्रांतीवादो का सप्रमाण खंडन किया हैं ।सुधारणा और बहुमतवाद इस संबंधमें सटीक और कठोर विचारोंका प्रतिपादन किया।ऐसेही शिक्षासंबंधी प्राथमिक विचारो का भी प्रतिपादन किया।रे राचिन सुत्र कायम रखकर नए साहित्यशास्त्राची निर्मीती की। कौटुंबीक व सामाजिक संबंधोकी प्रश्नोत्तर रुप में रचना की।
छोटे बच्चोंके लिए अलगसे उपदेश किया,स्त्रियोंके लिये खास गितो की निर्मीती की।लोकगितो के माध्यम से समाजप्रबोधन का कार्य किया।नुतन १२३ मात्रावृत्तोंकी रचना की।महाराज जी ने खुदकी अलग ऐसी लघुभाषा (सांकेतिकलिपी) अर्थात सांकेतीक भाषा की निर्मीती की।उन्होंने खुदकी "नावंग" नामक भाषा की निर्मिती की।इसी तरह नुतन व्याकरण सूत्र का भी निर्माण किया।नाटक लेखन किया,आख्यानोकी रचना की,खेलो में से परमार्थप्राप्तीका उपाय अर्थात मोक्षपट की निर्मीती की।
इस तरहा के लोकविलक्षण, एकमेवाद्वितीय, प्रज्ञाचक्षु पंचलतिका गोपी अवतार ,ज्ञानेशकन्या श्रीगुलाबराव महाराज जी का चरित्र अतिचमत्कारिक ,अतिदिव्य व एकमात्र है.इतना प्रभावशाली, आश्चर्यकारक विलक्षण चरित्र महाराज जी के अलावा और किसी का भी नही है ऐसे कहेने पर अतिशयोक्ती नहीं होगी।महाराज जी स्वयं ही एक चमत्कार है। ३२ वर्ष के अल्प आयु मे श्री महाराज जी ने अपने तात श्रीज्ञानेश्वर महाराज जी के पास पुणे में अपने नश्वर देह का त्याग किया।इन लोकविलक्षण ज्ञानेशकन्या जी के सुकोमल चरणो पर मेरे अनंत कोटी शिरसाष्टांग दंडवत प्रणाम।
✒️✍️त्यांचाच अक्षय जाधव आळंदी ✍️✒️
#ज्ञानेश्वर_माउली_समर्थ 🙏🌸🌺
#श्रीदत्त_शरणं_मम 🙏🌸🌺


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